रात के अंधेरॊं से नहीं जुल्फ़ की घने छावं से डरते हैं ।
दुनिया के गर्दिश से नहीं दिल के पनाहॊं से डरते हैं ।
ना खुश ज़िंदगी से नहीं मन की गुज़ारिशॊं से डरते हैं ।
ज़माने के ठुकराने से नहीं निगाहॊं के टकराने से डरते हैं ।
गम के आहट से नहीं मोहब्बत के इशारॊं से डरते हैं ।
खुदा के लाख सितम से नहीं इश्क के इम्तेहानों से डरते हैं ।
कुदरत की केहर से नहीं प्यार के कयामत से डरते हैं ।
तुफ़ान के चलने से नहीं जजबतॊं के बेहने से डरते हैं ।
जो डरगया वो बचगया !
क्या कहते हो गब्बर भाई सही कही ना?
-- कलाण कुल्कर्णि
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